लब-ए-खामोश
रात को िदन में घुलते देखा है
चाँद में बैठी सूत कातती इक बुिढया को देखा है
ख़ुदा कैसा िदखता है मुझे नहीं मालूम
पर अक्सर
अपने नाम को तुम्हारे होठों से िनकलते देखा है.......
चाँद में बैठी सूत कातती इक बुिढया को देखा है
ख़ुदा कैसा िदखता है मुझे नहीं मालूम
पर अक्सर
अपने नाम को तुम्हारे होठों से िनकलते देखा है.......
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